समंदर की हवाओं पर तुम्हारा (?) नाम लिख
दूंगी।
मैं, साहिल पर,
मैं, लहरों पर,
तुम्हारा (?) नाम लिख दूंगी।
महक उठेगा आँगन फ़िर मेरा,
आँगन के फूलों से
मैं जब आँगन के फूलों पर तुम्हारा (?) नाम लिख
दूंगी।
ऐसा होगा ना मेरे हाथ में जब पार करने को,
मैं दरिया किनारे पर तुम्हारा (?) नाम लिख
दूंगी।
खाला मैं जाउंगी इक शब् और अपने हाथो से
फलक के सब सितारों पर तुम्हारा (?) नाम लिख
दूंगी।
खुशी से रो पड़ेगी देख लेना
बेलों की कलियाँ
मैं, जब बेलों की कलियों पर तुम्हारा (?) नाम लिख
दूंगी।
तुम्हारा (?) नाम हाथों में जो कुदरत ने नही लिखा,
तो,
मैं, ख़ुद अपने हाथो पर तुम्हारा (?) नाम लिख
दूंगी।
धनक उभरेगी जब हंजा इक गहरे बादल पर
धनक के सारे रंगों पर तुम्हारा (?) नाम लिख
दूंगी।
"जख्मी"
(?)
Saturday, July 4, 2009
कभी जो हम नही होंगे?
कभी जो हम नही होंगे, कहो किसको बताओगे?
वो अपनी उलझने सारी
वो बेचैनी में दुबे पल
वो आँखों में छुपे आंसू
किसे फ़िर तुम दिखाओगे? कभी जो हम नही होंगे?
बहुत बेचैन होगे तुम
बहुत तन्हा रह जाओगे
अभी भी तुम नही समजे
हमारी अनकही बातें
मगर जब याद आएंगे
बहुत तुमको रुलायेंगे
बहुत चाहोगे फ़िर भी तुम हमे ना ढूंढ़ पाओगे।
कभी जो हम नही होंगे।??????????
"जख्मी"
वो अपनी उलझने सारी
वो बेचैनी में दुबे पल
वो आँखों में छुपे आंसू
किसे फ़िर तुम दिखाओगे? कभी जो हम नही होंगे?
बहुत बेचैन होगे तुम
बहुत तन्हा रह जाओगे
अभी भी तुम नही समजे
हमारी अनकही बातें
मगर जब याद आएंगे
बहुत तुमको रुलायेंगे
बहुत चाहोगे फ़िर भी तुम हमे ना ढूंढ़ पाओगे।
कभी जो हम नही होंगे।??????????
"जख्मी"
ख़ुद अपने वास्ते नासूर हूँ.
बस इतनी बात पर मगरूर हूँ,
कि,
शायद मैं तुझे मंजूर हूँ।
जमाने के लिए मरहम हूँ मैं,
ख़ुद,
अपने वास्ते नासूर हूँ।
निभाना सबके बस का भी नही,
मुहब्बत का मैं वो दस्तूर हूँ।
मेरी आँखों के आगे स्याह रातें,
पर.......
उसकी याद से पुरनूर हूँ।
मेरी बर्दाश्त की हद हो चुकी,
मैं कुछ करने पे अब मजबूर हूँ....................
"जख्मी"
कि,
शायद मैं तुझे मंजूर हूँ।
जमाने के लिए मरहम हूँ मैं,
ख़ुद,
अपने वास्ते नासूर हूँ।
निभाना सबके बस का भी नही,
मुहब्बत का मैं वो दस्तूर हूँ।
मेरी आँखों के आगे स्याह रातें,
पर.......
उसकी याद से पुरनूर हूँ।
मेरी बर्दाश्त की हद हो चुकी,
मैं कुछ करने पे अब मजबूर हूँ....................
"जख्मी"
हमारे इश्क को ज्यादा जवां होना है.
हमारे इश्क को ज्यादा जवां होना है,
अभी तो कत्ल का किस्सा बयां होना है।
समझ रहा था कि बस इम्तिहान ख़त्म हुआ,
अभी तो और भी इक इम्तिहान होना है।
जमाने भर में हुई जिसके वास्ते बदनाम,
उसी बसर का यहाँ पर बयां होना है।
वो, जिसकी बात बगावत के रंग में है रंगी,
वो तिफ्ल है उसे ऐ-हले जबां होना है।
हमे यकीं है सूरज जमीं पे उतरेगा,
हमारी बात का सभी को गुमां होना है।
लहू-लुहान जिगर लेकर मुस्कुराते है,
अभी तो दर्द की जड़ को जवां होना है।
हुई है राख फसादों की बस्तियां जल कर,
अभी तो तय है की अमनो अमान होना है।
"जख्मी"
Thursday, June 4, 2009
तुम जो आओ, आंसुओं से तुम्हारे पाँव धो लें.
वास्ता रखें किसी और से और फ़िर तुम्हारा हो लें,
चार दिन की जिंदगी में हर खुशी का रंग घोलें।
हर तरफ़ तो तोहमतें ही तोहमतें है इस जहाँ में,
हो सके तो अपने मुह से प्यार के दो बोल बोलें।
लौट आएँगी बहारें फ़िर चमन में ख़ुद-बा-ख़ुद ही,
कोशिशों से ख्वाहिशों के बंद दरवाजे को खोलें।
देखना इन डालियों पर फ़िर खिलेंगे फुल-पत्ते,
इन दरख्तों की जड़ों में मेहनतों का रंग घोलें।
मिलते-जुलते कट ही जायेंगी दुखों की चार घडियां,
जिंदगी के इस सफर में गर किसी के साथ हो लें।
धुप सिरहाने उतर कर कान में यूँ कह गई,
जाग गया सारा जमाना बंद दरवाजे को खोलें।
तुम ना आए राह तकती आँखें पत्थर हो चुकी अब,
तुम जो आओ आंसुओं से हम तुम्हारे पाँव धो लें।
ज़ख़्मी
ज़ख़्मी
Monday, June 1, 2009
आंखों से सपने सुहाने गए.
उनके जाते ही मौसम सुहाने गए,
मुस्कुराने के सारे बहाने गए।
अब किसी से भी कोई शिकायत नही,
अपनी आंखों से सपने सुहाने गए।
जिस सफर की कहीं कोई मंजिल ना थी,
उस सफर पर हमेशा दीवाने गए।
हौंसला अपना आंधी से टकरा गया,
हम चिरागों को छत पर जलाने गए।
शाम को खिड़कियाँ बंद रहने लगीं,
प्यार करने के शायद जमाने गए।
लेके दामन में लौटे नए जख्म हम,
जिंदगी जब भी तुझको मनाने गए।
ज़ख़्मी
ज़ख़्मी
हाय हम क्या से क्या हो गए?
सारे सपने कही खो गए,
हाय हम क्या से क्या हो गए।?
दिल से तन्हाई का दर्द जीता,
क्या कहें हम पे क्या-क्या ना बिता।
तुम ना आए, मगर जो गए,
हाय हम क्या से क्या हो गए।?
तुमने हमसे कहीं थी जो बातें,
उनको दोहरातीं हैं गम की रातें।
तुमसे मिलने के दिन खो गए,
हाय हम क्या से क्या हो गए?
कोई शिकवा ना कोई गिला है,
तुमसे कब हमको ये गम मिला है।
हाँ नसीब अपने ही सो गए,
हाय हम क्या से क्या हो गए?
सारे सपने कहीं खो गए,
हाय हम क्या से क्या हो गए?
ज़ख़्मी
ज़ख़्मी
Saturday, May 30, 2009
कमी क्या है?
लबों को सी लिया हमने तो हर्ज ही क्या है?
तेरी निगाह में कीमत जुबा की क्या है?
जो रख चुका है कदम चाँद पर बताये मुझे,
ये चाँद कैसे चमकता है चांदनी क्या है?
जो मुफलिसी को मिटाने की बात करता है,
वो जानता ही नही मुफलिसी क्या है?
हजार बार मैंने दिल को जला के देख लिया,
सनम बता दे मुहब्बत की रौशनी क्या है?
खालिश है, दर्द है, रंजो आलम है, आंसू है,
तुम्हारी दी हुई हर चीज़ है,
कमी क्या है?
बता कमी क्या है? ? ? ? ?
ज़ख़्मी
कोई और मेरी खता नही.
यहाँ चाहतों का सिला नही।
यहाँ दोस्ती का मजा नही।
यहाँ जाने कैसी हवा चली,
राही दोस्तों में वफ़ा नही।
यहाँ जल गया मेरा आशियाना,
अभी बादलों को पता नही।
तेरे दर पे दस्तक दे सकूँ,
ये हक़ तो तुने दिया नही।
मैं राही हूँ राह-ऐ-उम्मीद का,
मुझे मंजिलों का पता नही।
मैं बस हूँ जहाँ में इतना,
जैसे मेरा कोई खुदा नही।
मेरी सादगी मेरा जुर्म है,
कोई और मेरी खता।
ज़ख़्मी
ज़ख़्मी
क्या फायदा?
क्या फायदा किसी को चाहने का,
क्या फायदा किसी की यादों में आंसू बहाने का?
जो समझे ना किसी के दिल में बसे प्यार को,
क्या फायदा उसके प्यार के लिए दिल को तरपाने का?
छोटे से दिल को मिलते गम बहुत है,
ज़िन्दगी में मिलते हर पल ज़ख्म बहुत है।
मार ही डालती कबकी ये दुनिया,
कमबख्त दोस्तों की दुआओं में दम बहुत है।
उसने जो मेरा साथ ना दिया,
शायद उसकी भी कोई मज़बूरी थी।
बेवफा तो वो हो नही सकता,
शायद मेरी मुहब्बत ही अधूरी थी
ज़ख़्मी
ज़ख़्मी
जाने दो...........
जो सुना, जो कहा।
जाने दो।
इक सपना ही था,
जाने दो-जाने दो।
तेरा मिलना भी क्या, जैसे मौसम गया।
चाँद कहने लगा,
ना कहो,
जाने दो-जाने दो।
आना जाना तेरा लगता है,
फ़साना था,
तुमसे मिलना, बातें करना,
बहाना था,
वही है वो नदिया,
वही चांदनी,
मगर जान-ऐ-जाना,
कही तुम नही,
कही तुम नही।
क्या कहें क्या कहें,
तुम नही कुछ नही।
सारे वादे तेरे याद है मुझे
चाँद कहने लगा
न कहो,
जाने दो-जाने दो।
जब से रिश्ता तोड़ के
हमने तुन्हें चाहा था
रास्ता जिसमे साथ हो
वो रास्ता अपनाया था
वही है वो खिड़की
वही बाली थी,
मुहब्बत तुम्हारी भी
इक खेल थी,
इक खेल थी।
क्या कहें-क्या कहे,
तुम नही कुछ नही।
फुल खिलते भी है, लोग मिलते भी है।
चान कहने लगा
ना कहो,
जाने दो-जाने दो।
ज़ख़्मी
जाने दो।
इक सपना ही था,
जाने दो-जाने दो।
तेरा मिलना भी क्या, जैसे मौसम गया।
चाँद कहने लगा,
ना कहो,
जाने दो-जाने दो।
आना जाना तेरा लगता है,
फ़साना था,
तुमसे मिलना, बातें करना,
बहाना था,
वही है वो नदिया,
वही चांदनी,
मगर जान-ऐ-जाना,
कही तुम नही,
कही तुम नही।
क्या कहें क्या कहें,
तुम नही कुछ नही।
सारे वादे तेरे याद है मुझे
चाँद कहने लगा
न कहो,
जाने दो-जाने दो।
जब से रिश्ता तोड़ के
हमने तुन्हें चाहा था
रास्ता जिसमे साथ हो
वो रास्ता अपनाया था
वही है वो खिड़की
वही बाली थी,
मुहब्बत तुम्हारी भी
इक खेल थी,
इक खेल थी।
क्या कहें-क्या कहे,
तुम नही कुछ नही।
फुल खिलते भी है, लोग मिलते भी है।
चान कहने लगा
ना कहो,
जाने दो-जाने दो।
ज़ख़्मी
मुझे आ के जगा दे.
मुद्दत से हूँ ख्वाबीदा, मुझे आ के जगा दे।
ऐ इश्क मेरे दिल में फ़िर इक आग लगा दे।
मैं राज़ लिए तेरा कलेजे में ही मर जाऊं,
तू मेरी कहानी भरी महफिल में सूना दे।
मैं दर्द के जंगल से कहा जाऊं निकल कर,
तू साथ मेरे चल, तू मुझे राह दिखा दे।
मैं उतने दिनों और तेरी राह ताकुंगा,
तू जितने दिनों और मिलने की सजा दे।
मैं सुखा हुआ पेड़ हूँ, साया भी ना दूंगा,
तू काट दे मुझको, किसी चूल्हे में जला दे।
मैं तेरे सिवा किसी को भी ना चाहूँ,
तू मुझसे जुदा हो तो हजारों को सजा दे।
मैं गीत मुहब्बत का हूँ, मुझे आवाज दे,
होटों पे सजा कर तू मेरी बिगड़ी बना दे।
ज़ख़्मी
ज़ख़्मी
ज़िन्दगी तुने हुम्नको मगर नचाया है बहुत.
कह दिया हमने बहुत कुछ, और पाया है बहुत।
ज़िन्दगी तुने हमको मगर नचाया है बहुत।
वो सफर लेकर कहा जाएगा, ये ख़ुद सोचिये।
जिस सफर में धुप है थोडी सी, छाया है बहुत।
दोस्तों ने दुश्मनी भी की तो, किस अंदाज में।
सजर पे तारीफ़ की, हमको चढाया है बहुत।
मुझसे बेहतर कौन समझेगा जुदाई की तड़प,
तितलियों को हमने फूलों से उडाया है बहुत।
आंसुओं का रंग भी पानी जैसा है, मगर,
आंसुओं का रंग भी अक्सर रंग लाया है बहुत।
दाल-पात, लुक्का-छिप्पी, और बुधे बरगद का दरख्त,
मीत तेरी प्रीत ने हमको रुलाया है बहुत।
जिनको दादी ने सुनाया था सुलाने के लिए,
हमको उन् किस्सों ने एरातों को जगाया है बहुत।
ज़ख़्मी
ज़ख़्मी
Tuesday, May 26, 2009
प्यार लफ्जों में छुपा कर वो जताती रही...
दूर रहकर भी, नज़र पास वो आती है कभी,
प्यार लफ्जों में छुपा कर वो जताती है कभी।
श्याम बेला सी महकती है कभी साँसों में,
और परी बनके मेरे ख्वाब सजाती है कभी।
जब कभी आइना देखूं तो अपनी आंखों में,
सांवली मोहनी सूरत नज़र आती है कभी।
वो बढाती है मेरे हौसले राधा बनकर,
श्याम की बावरी मीरा नज़र आती है कभी।
समझ लेगी वो मेरी बात मेरी गज़लों से,
बात ऐसी भी मेरे दिल को बहलाती है कभी।
सोचता हूँ कभी कह दूँ की उसको पाना है,
खोने के डर से जुबान बंद हो जाती है कभी।
ज़ख़्मी
ज़ख़्मी
Monday, May 25, 2009
क्या था कसूर मेरा?
क्या था कसूर मेरा, ये बताते जाते,
कोई कहानी लोगो को सुनाते जाते।
मैंने सोचा दिल मेरा लौटा के जाओगे
जान भी लिए जा रहे हो, जाते जाते।
कितने सपने देखे हमने जिनकी खातर,
छोड़ गए हमें तनहा जाते जाते।
वो तो ना आए पर यादें आती रही,
कैसे कहे, क्या हाल है,
जब उन्होंने ही मुह फेर लिया, सामने से आते आते।
ज़ख़्मी
कोई कहानी लोगो को सुनाते जाते।
मैंने सोचा दिल मेरा लौटा के जाओगे
जान भी लिए जा रहे हो, जाते जाते।
कितने सपने देखे हमने जिनकी खातर,
छोड़ गए हमें तनहा जाते जाते।
वो तो ना आए पर यादें आती रही,
कैसे कहे, क्या हाल है,
जब उन्होंने ही मुह फेर लिया, सामने से आते आते।
ज़ख़्मी
गर फासला रखते..........?
हम और दरमियान रिश्तों के फासला रखते,
खुलूस वाले जो मिलते तो वास्ता रखते।
जो खोफ आंधी से खाते तो अपने रहने को,
परिंदे किस लिए तिनकों का घोंसला रखते।
ना जाते तुम भी किसी बूत्कडे में मेरी तरह,
जो अपने दिल में कोई प्यार का खुदा रखते।
पहुँच ही जाता उजाला तुम्हारे कमरे में,
दरीचा अपने मकान का अगर खुला रखते।
तमाम रिश्ते कभी के बिखर गए होते,
जो उनके बीच ना थोडा सा फासला रखते।
ये तुमने ठीक किया घर को राख कर डाला,
धुआं निकलता अगर उनको अधजला रखते।
किसे ख़बर थी तेरे गाँव की रिवायत का,
वगरना दिल को हम सीने में ही दबा रखते।
ज़ख़्मी
खुलूस वाले जो मिलते तो वास्ता रखते।
जो खोफ आंधी से खाते तो अपने रहने को,
परिंदे किस लिए तिनकों का घोंसला रखते।
ना जाते तुम भी किसी बूत्कडे में मेरी तरह,
जो अपने दिल में कोई प्यार का खुदा रखते।
पहुँच ही जाता उजाला तुम्हारे कमरे में,
दरीचा अपने मकान का अगर खुला रखते।
तमाम रिश्ते कभी के बिखर गए होते,
जो उनके बीच ना थोडा सा फासला रखते।
ये तुमने ठीक किया घर को राख कर डाला,
धुआं निकलता अगर उनको अधजला रखते।
किसे ख़बर थी तेरे गाँव की रिवायत का,
वगरना दिल को हम सीने में ही दबा रखते।
ज़ख़्मी
चैन से ज़ख्मी को जीने दीजिये.
चंद लम्हे संग जीने दीजिये,
घूंट भर आकाश पिने दीजिये।
हो अगर कोई नदी एहसास की,
वो उम्मीदों के साफिने दीजिये।
नफरतों में जल रहे इंसान को,
प्यार के मन्दिर-मदीने दीजिये।
फूल से नाजुक नरम जज्बात को,
पत्थरों से सख्त सिने दीजिये।
रूप नयनों का बिखरना चाहिए,
आंसुओं को कुछ नगीने दीजिये।
ऐश में दुबे हुए ईमान को,
कुछ मश्हक्कत, कुछ पसीने दीजिये।
आप गुल्छ्र्रें उडाएं ठीक है,
चैन से ज़ख्मी को जीने दीजिये.
घूंट भर आकाश पिने दीजिये।
हो अगर कोई नदी एहसास की,
वो उम्मीदों के साफिने दीजिये।
नफरतों में जल रहे इंसान को,
प्यार के मन्दिर-मदीने दीजिये।
फूल से नाजुक नरम जज्बात को,
पत्थरों से सख्त सिने दीजिये।
रूप नयनों का बिखरना चाहिए,
आंसुओं को कुछ नगीने दीजिये।
ऐश में दुबे हुए ईमान को,
कुछ मश्हक्कत, कुछ पसीने दीजिये।
आप गुल्छ्र्रें उडाएं ठीक है,
चैन से ज़ख्मी को जीने दीजिये.
पा ना सके.
हमने जिसे चाहा , उसे पा ना सके।
हमने जिसे देखा, उसे निभा ना सके।
ख्वाहिशें तो बहुत थी दिल में,
पर....
बता ना सके।
हमने जिसे चाहा, उसे पा ना सके।
करते रहे दिल ही दिल में मुहब्बत,
वो थे की हमे पहचान ना सके।
करते थे हम इनकार, जब आते थे सामने वो,
करते थे इकरार जब मिलाते थे नजर वो।
हम तो बैठे थे इंतजार में उनके ..................?
ज़ख़्मी
Sunday, May 24, 2009
मुझे चाहने दे........
मुझे चाहने दे यूँ सदा, तू भले वफ़ा का सिला ना दे।
ये गुनाह है तो बता ज़रा, कहा कब मैंने सज़ा ना दे।
मैंने मंजिल की सदा सुनी, इन्ही तेज लहरों के शोर में।
मैं तमाम दूर निकल चुका, मुझे साहिलों से सदा ना दे।
मुझे बादशाहे खुदी बना, तू मुहब्बतों के लिबास से।
मुझे सब फ़कीर का नाम दे, मेरे जिस्म को वो काबा ना दे।
ना मैं दिल का दर्द सूना सकूँ, ना मैं आंसुओं को बहा सकूँ।
जो गरज सके ना बरस सके, मुझे गम की ऐसी घटा ना दे।
मेरे चाँद अब तो निकल भी आ, तू इन कशमकश की घटाओं से।
तेरी मुन्ताजीर मेरी चश्मे नाम, की इन सरहदों को हटा भी दे..........
ज़ख्मी.......
ये गुनाह है तो बता ज़रा, कहा कब मैंने सज़ा ना दे।
मैंने मंजिल की सदा सुनी, इन्ही तेज लहरों के शोर में।
मैं तमाम दूर निकल चुका, मुझे साहिलों से सदा ना दे।
मुझे बादशाहे खुदी बना, तू मुहब्बतों के लिबास से।
मुझे सब फ़कीर का नाम दे, मेरे जिस्म को वो काबा ना दे।
ना मैं दिल का दर्द सूना सकूँ, ना मैं आंसुओं को बहा सकूँ।
जो गरज सके ना बरस सके, मुझे गम की ऐसी घटा ना दे।
मेरे चाँद अब तो निकल भी आ, तू इन कशमकश की घटाओं से।
तेरी मुन्ताजीर मेरी चश्मे नाम, की इन सरहदों को हटा भी दे..........
ज़ख्मी.......
किसी के प्यार की खुशबु हवा में शामिल है.
नज़र से दूर है मगर, फिजा में शामिल है।
किसी के प्यार की खुशबु हवा में शामिल है।
मैं चाहकर भी तेरे पास आ नही सकता,
की दूर रहना भी मेरी वफ़ा में शामिल है।
खजाने गम के मेरे दिल में दफ़न है, यारों
ये मुस्कुराना तो मेरी अदा में शामिल है।
खुदा करे की, ये उसको कभी पता ना चले ,
की बेबसी भी हमारी रजा में शामिल है।
तूफ़ान में हमको छोड़ के जाने का शुक्रिया,
खैर्सिगली मेरी उर्दू जुबान में शामिल है।
तेरे सुलूक ने जीना सिखा दिया, लेकिन
तेरे बगैर ये जीना सज़ा में शामिल है।
ज़ख़्मी
ज़ख़्मी
ख्वाब लिखता है कोई?
अपनी पलकों पर ख्वाब लिखता है कोई।
अपनी खातिर अजब लिखता है कोई।
आंसुओं से वरक भिगोता है कोई।
जाने कैसे किताब लिखता है।
मुझसे शायद खफा खफा सा है,
ख़त में मुझको जनाब लिखता है।
सारे जहाँ में उग गए कांटे,
कौन किसको गुलाब लिखता है।
कोई महिवाल मेरे दिल में है,
हर नदी को चिनाब लिखता है।
जब भी देखू मैं तेरी सूरत को,
जाने क्या महताब लिखता है?
ज़ख्मी...
Saturday, May 23, 2009
बात आती है जुबान पर.....
बात आती है जुबान पर, मगर कहा नही जाता।
दिल-ऐ-बेताब का ये हाल भी अब सहा नही जाता।
रंजिश-ऐ-गम में अश्क अपने मैं बहा नही पाता,
नज़र ना लग जाए जमाने की, छुपाया पलकों में,
अब चाहकर भी तेरे दीदार का लुत्फ़ मैं उठा नही पाता।
रात भर करे दीदार तेरा आसमान में ये आँखें,
नींद तेरे ख़्वाबों के लिए भी मैं बचा नही पाता।
घेर लिया है मुझको तन्हाइयों के अंधेरों ने ऐसे,
पन्ने है तेरी यादों के, मगर मैं जला नही पाता।
कोशिश करता थो शायद तुझे भुला भी देता,
मगर आइनों में तेरे अक्स को मैं छुपा नही पाता।
यूँ थो दर्दों की दवा बन जाती है ये जुबां ,
अफ़सोस इसे अपने घावों का मरहम मैं बना नही पाता।
बात इतनी सी होती थो शायद कह देता, मैं रोकर भी।
आग बरसों की लगी सिने में, जिसे मैं बुझा नही पाता।
कही बदनाम ना हो जाए मुहब्बत मेरी, इस डर से
अपनी लिखी हुई नज्मों को भी मैं गुनगुना नही पाता।
जिस्म में बसाया था, खुदा-या मैंने तुझे दिलबर।
घुट घुट के तू ना मर जाए, ख़ुद को दफना नही पाता.......................
ज़ख़्मी
ज़ख़्मी
जहाँ भी देखू मुझे तू ही तू दिखाई दे.........
कलम गुमों की दे, अश्कों की रोशनियाँ दे।
गिरे पड़े लफ्जों को चुन रहा हूँ मैं,
हदें-सुखान की न मुझे कोई दुहाई दे।
मैं अपने शेरो में इतना ख़याल रखता हूँ,
कहा गया है जो उनमे, तुझे सुनाई दे।
तेरे बहानों पे मुझको यकीन रहता है,
भरम ना तोड़ मेरा, कुछ ना तू सफाई दे।
नज़र में,
दिल में,
फिजा में,
ग़ज़ल के शेरो में,
जहा भी देखू मुझे, तू ही तू दिखाई दे.
ज़ख़्मी
गिरे पड़े लफ्जों को चुन रहा हूँ मैं,
हदें-सुखान की न मुझे कोई दुहाई दे।
मैं अपने शेरो में इतना ख़याल रखता हूँ,
कहा गया है जो उनमे, तुझे सुनाई दे।
तेरे बहानों पे मुझको यकीन रहता है,
भरम ना तोड़ मेरा, कुछ ना तू सफाई दे।
नज़र में,
दिल में,
फिजा में,
ग़ज़ल के शेरो में,
जहा भी देखू मुझे, तू ही तू दिखाई दे.
ज़ख़्मी
आज भी है.....
मुहब्बत भी बहुत है..............
शिकवे भी हजारों हैं,
शिकायत भी बहुत हिया।
इस दिल को मगर,
उससे मुहब्बत भी बहुत है।
आ जाता है मिलने वो,
तस्सव्व्वुर में हमारे,
एक शख्स,
इतनी सी इनायत भी बहुत है।
ये भी तमन्ना है की,
उसे दिल से भुला दे,
इस दिल को मगर,
उसकी जरुरत भिबहुत है।
देखें थो ज़रा पी के हम भी,
ज़हर-ऐ-मुहब्बत,
सुनते है की,
इस ज़हर में लज्जत भी बहुत है...............
ज़ख़्मी
ज़ख़्मी
कोई गम नही.........
ना सांझे हमको कोई गम नही,
ना पोंछे कोई अश्कों को गम नही।
धड़कता दिल रुकता है गम नही,
बंद हो जाएँ आँखें गम नही,
गम है थो,
उनका जो मिलकर भी मिले नही।
करीब आकर भी करीब नही।
हाथो को छूना भर था की हो गए दूर।
कर गए रुसवा जीवन भर ,
गम नही।
ज़ख़्मी
ना पोंछे कोई अश्कों को गम नही।
धड़कता दिल रुकता है गम नही,
बंद हो जाएँ आँखें गम नही,
गम है थो,
उनका जो मिलकर भी मिले नही।
करीब आकर भी करीब नही।
हाथो को छूना भर था की हो गए दूर।
कर गए रुसवा जीवन भर ,
गम नही।
ज़ख़्मी
ऐसी किस्मत कहा थी?
तू चाहे मुझे, ऐसी किस्मत कहा थी?
कहाँ मैं कहाँ तू ये निस्बत कहाँ थी?
तेरी बेरुखी से ये दिल मुख्तारिब था,
मेरा हाल तू जाने तुझे फुर्सत कहाँ थी?
मेरी चाहतों की तुझे क्या ख़बर थी,
तू सोचे मुझे ये तेरी फितरत कहाँ थी?
तुझे अपने मन से निकालू थो कैसे?
मैं पा लू तुझे ये मेरी किस्मत कहाँ थी?
जो बन जाता मेरा हमसफ़र कही तू,
भला मेरी ऐसी किस्मत कहाँ थी?
जिसे सुनके तुने निगाहें झुका ली,
ये नोहा था मेरा शिकायत कहाँ थी?
तू जो कुछ भी था बस एक वहम था,
मुलीम का फरेब-ऐ-नज़र था,
हकीकत कहाँ थी........!
ज़ख़्मी
ज़ख़्मी
Subscribe to:
Posts (Atom)