मुझे चाहने दे यूँ सदा, तू भले वफ़ा का सिला ना दे।
ये गुनाह है तो बता ज़रा, कहा कब मैंने सज़ा ना दे।
मैंने मंजिल की सदा सुनी, इन्ही तेज लहरों के शोर में।
मैं तमाम दूर निकल चुका, मुझे साहिलों से सदा ना दे।
मुझे बादशाहे खुदी बना, तू मुहब्बतों के लिबास से।
मुझे सब फ़कीर का नाम दे, मेरे जिस्म को वो काबा ना दे।
ना मैं दिल का दर्द सूना सकूँ, ना मैं आंसुओं को बहा सकूँ।
जो गरज सके ना बरस सके, मुझे गम की ऐसी घटा ना दे।
मेरे चाँद अब तो निकल भी आ, तू इन कशमकश की घटाओं से।
तेरी मुन्ताजीर मेरी चश्मे नाम, की इन सरहदों को हटा भी दे..........
ज़ख्मी.......
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