Saturday, May 23, 2009

बात आती है जुबान पर.....


बात आती है जुबान पर, मगर कहा नही जाता।

दिल-ऐ-बेताब का ये हाल भी अब सहा नही जाता।

रंजिश-ऐ-गम में अश्क अपने मैं बहा नही पाता,

नज़र ना लग जाए जमाने की, छुपाया पलकों में,

अब चाहकर भी तेरे दीदार का लुत्फ़ मैं उठा नही पाता।

रात भर करे दीदार तेरा आसमान में ये आँखें,

नींद तेरे ख़्वाबों के लिए भी मैं बचा नही पाता।

घेर लिया है मुझको तन्हाइयों के अंधेरों ने ऐसे,

पन्ने है तेरी यादों के, मगर मैं जला नही पाता।

कोशिश करता थो शायद तुझे भुला भी देता,

मगर आइनों में तेरे अक्स को मैं छुपा नही पाता।

यूँ थो दर्दों की दवा बन जाती है ये जुबां ,

अफ़सोस इसे अपने घावों का मरहम मैं बना नही पाता।

बात इतनी सी होती थो शायद कह देता, मैं रोकर भी।

आग बरसों की लगी सिने में, जिसे मैं बुझा नही पाता।

कही बदनाम ना हो जाए मुहब्बत मेरी, इस डर से

अपनी लिखी हुई नज्मों को भी मैं गुनगुना नही पाता।

जिस्म में बसाया था, खुदा-या मैंने तुझे दिलबर।

घुट घुट के तू ना मर जाए, ख़ुद को दफना नही पाता.......................
ज़ख़्मी

No comments:

Post a Comment