बस इतनी बात पर मगरूर हूँ,
कि,
शायद मैं तुझे मंजूर हूँ।
जमाने के लिए मरहम हूँ मैं,
ख़ुद,
अपने वास्ते नासूर हूँ।
निभाना सबके बस का भी नही,
मुहब्बत का मैं वो दस्तूर हूँ।
मेरी आँखों के आगे स्याह रातें,
पर.......
उसकी याद से पुरनूर हूँ।
मेरी बर्दाश्त की हद हो चुकी,
मैं कुछ करने पे अब मजबूर हूँ....................
"जख्मी"
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
wah well written :)
ReplyDelete